आलेख- दिनेश प्रसाद डंगवाल, अध्यक्ष राजीकीय शिक्षक संघ, जाखणीधार टिहरी गढ़वाल।
आधुनिकता की चकाचैंध ने मनुष्य के सामाजिक जीवन में जबरदस्त बदलाव ला दिया है जिससे हमलोग अपनी पुरानी परंपराओं को धीरे धीरे खोते जा रहे हैं। निश्चित रूप से आने वाले समय में कुछ बातें अतीत के तौर पर ही याद रखी जाएंगी। आने वाली पीढियां इन सब परम्पराओ को किस्से कहानियों में ही सुन पाएंगी। बदलते दौर में अनेक लोक परंपरायें धीर-धीरे लुप्त होती जा रही हैं. लोक परंपराओं में डोली पर सवार होकर दुल्हन के ससुराल जाने की परंपरा भी समाप्त हो चुकी है, नतीजतन शादी-विवाह के इस मौसम में न तो कहीं डोली-डोला नजर आती है व न उसे ढोने वाले कहार- ढोली ही नजर आते है। अलबत्ता डोली की चर्चा अब केवल फिल्मों के गीतों तक ही सीमित हो कर गयी है। डोली और पालकी के बारे में नयी पीढ़ी जानती तक नहीं है बदलते दौर में शादी के हाइटेक होने के साथ दुल्हन की विदाई भी हाइटेक हो चुकी है
आधुनिकता के नाम पर परंपराओं में बदलाव का यह दौर उत्तराखंड के गढ़वाल ओर कुमाऊँ की संस्कृति व परम्परा पर पूरी तरह हावी हो चुका है।80-90 के दशक तक दूल्हा पालकी पर सवार होकर ससुराल जाता था व दुल्हन डोली में बैठ कर अपने पिया के घर के लिए विदा होती थी पर अब इसकी परंपरा समाप्त होने के साथ-साथ कहार- ढोली भी बेरोजगार हो गये या इस जाति के लोगों ने रोजी-रोटी की वैकल्पिक व्यवस्था कर ली। गौरतलब है कि जब दुल्हल डोली पर सवार होकर अपनी ससुराल जाती थी, तो मायके से ससुराल पहुंचने में कई घंटे लग जाते थे। इस बीच दुल्हन तरह-तरह की कल्पनाएं करती थी खैर वक्त बदलते के साथ ही डोली पर सवार होकर पिया के घर जाने की व्यवस्था भी बदल गयी है। अब तो दुल्हन बोलेरो, स्कार्पियो जैसी तीव्र गति से चलनेवाले वाहनों से पिया के घर पलक झपकते ही पहुंच जाती है। कभी कभी तो दुल्हन की विदाई में रेल और हवाई यात्रा की व्यवस्था देखी जाती है। । आज न तो डोली रही और न उसे उठाने वाले कहार ही। बदलते दौर में न केवल हमारी लोक जीवन शैली बदली है बल्कि कई लोक परंपराएं भी लुप्त हो गयी हैं। अब फिल्मों में ही दिखती है डोली अब फिल्मी गीतों में ही डोली का जिक्र आता है।
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