Tuesday 16 May 2017

माधो सिंह भंडारी की अनूठी इंजीनियरिंग और बलिदान !







    पौड़ी में सेवारत रहते हुए टिहरी- श्रीनगर सड़क मार्ग से जब भी मै आवागमन करता था मलेथा पहुँचते ही वहां के लहलहाते खेत-खलिहान देखकर माधो सिंह भंडारी की वीरता और बलिदान के बारे में सोचते हुए बड़ी इच्छा होती थी की एक बार माधो सिंह के स्मारक पर जाकर उनकी न केवल वीरता अपितु अनोखी इंजीनियरिंग को भी अपनी आँखों से देख सकूँ और आखिर आज मेरी यह इच्छा पौड़ी से मेरा स्थानान्तरण टिहरी होने पर पूरी हो ही गयी. पौड़ी से लौटते हुए मै सीधे पहुँच गया माधो सिंह के स्मारक पर, जहाँ ठीक दो घंटे तक स्मारक, माधो सिंह भंडारी द्वारा बनाई गयी सुरंग और नहर सहित चंद्रभागा नदी के जलधारा को स्पर्श कर अपनी जिज्ञासा को शांत करने के कोशिस करता रहा. और फिर मन में उभरे अनेक सवालों के साथ निकल पड़ा अपने गंतव्य के लिए.  
       श्रीनगर से 12 किमी दूर ऋषिकेश मार्ग पर  मलेथा नामक एक शांत गांव स्थित है। जहाँ से एक सड़क टिहरी (आधुनिक नई टिहरी) के लिए निकलती है. यह एक ऐतिहासिक स्थान है जो 1595 में टिहरी गढ़वाल जिले के मलेथा गांव में एक महान योद्धा सोनबान कालो भंडारी के यहाँ जन्में माधो सिंह भंडारी की बहादुरी और बलिदान के लिए जाना जाता है। माधो सिंह भंडारी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि होने के साथ बलवान भी थे और अपने इन्ही गुणों के कारण वे तत्कालीन राजा की नजरों में आगये. उन्होंने श्रीनगर में राजदरवार में अपनी सेवाएं दीं और अपनी बहादुरी और कठोर परिश्रम के कारण जल्द ही राजा की सेना में सेनापति के पद पर पहुंच गए। यह गढ़वाल के राजा महिपति शाह (1629-1646) के मुख्य सेनापति थे. एक कुशल सेनापति के रूप में माधो सिंह भंडारी ने अनेक युद्ध फतह किये और कई उल्लेखनीय कार्य भी किये.
        यह हैरानी की बात ही हैं की भारत और तिब्बत के बीच सीमा विभाजक रेखा मैक-मोहन लाइन का नाम तो सभी जानते हैं लेकिन यह बहुत कम लोग ही जानते हैं की भारत और तिब्बत के बीच मैक-मोहन लाइन के रूप में जानी जाने वाली यह अंतरराष्ट्रीय सीमा माधो सिंह भंडारी ने तैयार की थी।
पहाड़ को काट कर तैयार की गयी सुरंग, जहाँ से चंद्रभागा का पानी मलेथा पहुँच रहा है. यही पर माधो सिंह ने अपने पुत्र गजे सिंह का किया था बलिदान
       माधो सिंह भंडारी की अनूठी इंजीनियरिंग और बलिदान से पहले मालेथा गांव मात्र बंजर भूमि था, आसपास पानी के कोई श्रोत न होने से  मिट्टी सूखी थी, केवल झांगोरा (बाजरा), कोदा (मंडुआ) जैसे मोटे बाजरा ही पनप पाते थे क्योंकि पानी की कमी के कारण कोई अन्य फसलें पैदा नहीं हो सकती थीं। पेयजल का भी अभाव बना रहता था.
गाँव के एक दौरे ने माधो सिंह भंडारी को झकझोर कर रख दिया
कहा जाता है की अक्सर अपने साम्राज्य की सीमाओं की रक्षा के लिए युद्धरत रहने वाले भंडारी एक बार अपने गाँव पहुंचे. माधो सिंह भंडारी ने देखा कि उनके प्रिय पुत्र गजे सिंह भंडारी  जो अब जवानी को और अग्रसर था, पर्याप्त पोषण नहीं मिलने से कमजोर हो रहा था । जब उन्होंने अपनी पत्नी को अपने बेटे की ख़राब सेहत के बारे में पूछा तो  तो उसने माधो सिंह को सूखा और बंजर क्षेत्र दिखाया जो पानी की कमी के कारण खेती के लिए उपयोगी नहीं था। व्यथित होकर, माधो सिंह भंडारी ने वचन दिया कि जब तक वह गाँव में पानी नहीं लाते तब तक वे शांति से नहीं रहेंगे। अगले ही दिन माधो सिंह ने नजदीकी जलश्रोतों की खोज की और पता चला कि गांव में निकटतम जलधारा चंद्रभांगा नदी (टकोली गाड) में थी। मलेथा और चंद्रभागा नदी के मध्य एक पहाड़ीनुमा विशालकाय चट्टान होने के कारण पाने मलेथा तक पहुचाना असंभव ही था. माधो सिंह भंडारी यह तय कर चुके थे की वह चंद्रभागा का पानी मलेथा तक पहुंचाने तक चुप न रहेंगे. राजदरवार से लम्बी छुट्टी लेकर वह पुनः गाँव पहुँच गए और चट्टान को काटकर सुरंग खोदने में जुट गए. इस कार्य में उनके लाडले पुत्र गजे सिंह भंडारी ने भी बराबर योगदान दिया.
      उन्होंने विशाल चट्टानों के बीच करीब 1 किमी लंबी सुरंग खोदना शुरू किया । कहा जाता है की आरम्भ में स्थानीय ग्रामीणों ने उनके इस असंभव कार्य का उपहास किया किन्तु धीरे धीरे अन्य ग्रामीण भी  उनकी लगनशीलता और हिम्मत के सामने नतमस्तक होकर सहयोग करने लगे. जल्द ही मज़बूत चट्टान को काट दिया गया था और सुरंग के ऊपरी हिस्से को बड़े पत्थरों से इसतरह ढक दिया था ताकि पहाड़ और पर्यावरण  सुरक्षित रह सके , इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों में भी सुरंग को कोई खतरा नहीं था । कार्य पूरा होने के बाद जब चंद्रभागा नदी से सुरंग से होते हुए पाने मलेथा गाँव के लिए छोड़ा गया तो तमाम प्रयासों के बाद भी पानी सुरंग से बाहर नही निकल पाया.  माधो सिंह और ग्रामीणों ने क्षेत्रीय देवता से मदद मांगी, जिन पर उनका अटूट अटूट विश्वास था । तीन दोनों की पूजा और अनुष्ठान के बाद अगली एक रात देवी चन्द्रबदनी माधो सिंह के सपने में प्रकट हुई और माधो से कहा कि उनके बेटे का बलि देने पर ही मलेथा में जलधारा प्रवाहित हो सकती है। देवी को खुश करने और पानी रुपी जीवन को गांव में लाने के लिए, बिना किसी विचार के माधो सिंह भंडारी ने अपने बेटे का  भविष्य में ग्रामीणों और क्षेत्रवासियों की खुशहाली के लिए बलिदान दे दिया। जैसे ही सुरंग के मुंह पर बेटे का सिर रखा, आगे आगे लहू और पीछे पानी बहना शुरू हो गया और तब से क्षेत्र में कभी भी पानी की कमी नहीं हुई है.  मलेथा में फासले लहलहाने लेगी और लोगों के जीवन में माधो सिंह की मेहनत और उनके पुत्र के बलिदान से खुशहाली आ गयी.
  
गजेसिंह की पीड़ा पर यह मार्मिक कविता भी खूब पड़ी जाती है-

तुम तो वनराज की उपाधि पा चुके पिता 

धान की रोपाई करते मलेथा के ग्रामीण
किन्तु मै तो मेमना ही साबित हुआ. 
लोकगीतों के पंखों पर बिठा दिया 
तुम्हे जनपद के लोगो ने,

इतिहास में अंकित हो गयी तुम्हारी शौर्यगाथा.

और मै मात्र- एक निरीह पशु सा,

एक आज्ञाकारी पुत्र मात्र- त्रेता के राम सा.

छोड़ा जिसने राजसी ठाठबाट,
समस्त वैभव और सभी सुख. और मैंने
,
आहुति दे डाली जीवन की तुम्हारी इच्छा पर.
मेरा भी समग्र मूल्यांकन हो पायेगा?

ऐसी भी क्या विवशता थी पिता, 
ऐसी भी क्या शीघ्रता थी 

मै राणीहाट से लौटा भी नहीं था कि

तुमने कर दिया मेरे जीवन का निर्णय.

फसलों से लहलहाते खेत

सोचा नहीं तुमने कैसे सह पायेगी
यह मर्मान्तक पीड़ा, यह दुःख 
मेरी जननी, सद्ध्य ब्याहता पत्नी
और दुलारी बहना.

क्या कांपी नहीं होगी तुम्हारी रूह, काँपे नहीं तुम्हारे हाथ 

मेरी गरदन पर धारदार हथियार से वार करते हुए,
ओ पिता, मै तो एक आज्ञाकारी पुत्र का धर्म निभा रहा था 
किन्तु तुम, क्या वास्तव में मलेथा का विकास चाहते थे
या तुम्हे चाह थी मात्र जनपद के नायक बनने की ?
और यदि यह सच है तो पिता मै भी शाप देता हूँ कि
जिस भूमि के लिए मुझे मिटा दिया गया- उस भूमि पर
अन्न खूब उगे, फसलें लहलहाए किन्तु रसहीन, स्वाद हीन!
और पिता तुम, तुम्हारी शौर्यगाथाओं के साथ-
पुत्रहन्ता का यह कलंक तुम्हारे सिर
, तुम्हारी छवि धूमिल करे !!
               मलेथा  के लोगों को जीवन का वरदान देने के बाद
, माधो सिंह भंडारी को कर्तव्य ने वापस बुला लिया । अपने दिल में भारी बोझ के साथ, उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया और कभी वापस नहीं लौटे। करीब ५०० साल बीत गए है आज भी जब कोई व्यक्ति मलेथा  में निस्वार्थता और शिष्टता के बारे में बात करता है, तो माधो सिंह की किंवदंती याद करते है । 500 वर्षों के बाद भी, नहर अपना काम कर रही हैं और  मलेथा की  सुरंग ने गांव को समृद्ध और उपजाऊ बना दिया है। मलेथा के बहादुर पुत्र का सम्मान करने के लिए, गांव में माधो सिंह का एक स्मारक ठीक उनके पुत्र  गजे सिंह भंडारी  के बलिदान स्थल के ऊपर बनाया गया है जहाँ वीर माधो सिंह भंडारी की यह मूर्ती स्थापित की गयी है. स्थानीय लोगों द्वारा विशेषकर फसल कटाई के दौरान इस स्मारक स्थल पर पूजा की जाती है। आज श्रीनगर से लगे अनेक गाँवों का बाजारीकरण होने के कारण मलेथा पर भी कई भूमाफियाओं और खननमाफियाओं की गिद्ध दृष्टि टिकी है. किन्तु मलेथावासियों को अपनी माटी से अटूट प्रेम है और मुझे पूरा विस्वास है की वीर माधो सिंह भंडारी के बलिदान को किसी भी कीमत पर बेचा नहीं जा सकेगा.                                                                                                          "सुशील डोभाल"

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