सुशील डोभाल, नई टिहरी उत्तराखंड. |
देश और दुनिया मे आज के दिन सत्य, अहिंसा और प्रेम के मसीहा व आजादी के महानायक महात्मा गांधी की जयंती हर्सोल्लास के साथ मनाई जाती है लेकिन पिछले कई वर्षों से मेरे मन मे आज के ही दिन उत्तराखंड के शांत स्वभाव के बेगुनाह आंदोलनकारियों पर मुजफ्फरनगर में हुई पुलिस बर्बरता की यादें ताजा हो जाती है और लगता है कि गांधी जी के विचारों का इस दिन खूब मखोल उड़ाया गया। रामपुर तिराहे पर अपनी शहादत देने वाले उत्तराखंड के अमर वलिदानियों को श्रद्धांजली अर्पित करता हूँ।
करीब चार वर्ष पूर्व उत्तराखंड विधान सभा में उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारियों को राजकीय सेवा में 10 फ़ीसदी आरक्षण के बिल के तत्कालीन विपक्ष जो अब सत्ता पक्ष भी है, के द्वारा विरोध से मैं सहमत हूँ। उस समय विपक्ष और सत्ता पक्ष के कई विधायक उत्तराखंड में वर्ष 2000 से पहले के मूलनिवासियों को भी आंदोलनकारी घोषित करने की मांग कर रहे थे। मुद्दा जायज ही नही तर्कसंगत भी है। चिन्हीकरण की प्रक्रिया में भी संशोधन किया जाना जरूरी है क्योंकि आन्दोलनकारियों के चिह्नीकरण की प्रक्रिया तमाम दोषों से युक्त है। मेरा मानना है की राज्य आन्दोलनकारी तो उत्तराखंड का आम जनमानस था। 1994 में आन्दोलन के चलते साल के अधिकतर महीनों में जो छात्र स्कूलो में पढ़ने लिखने के बजाय सडको पर मशालें ले कर झुलूस निकाल रहे थे और जिनतक एलआईयू, पुलिस और प्रशासन की नजर नहीं गयी क्या वे छात्र छात्रा, शिक्षक और अन्य लोग आन्दोलनकारी नहीं थे? पहाड़ के युवा बुजुर्ग और माताये बहिने कोन आन्दोलनकारी नहीं है? क्या पहाड़ के वह प्रवासी लोग आंदोलनकारी नहीं थे जिन्होंने आजीविका के लिए पहाड़ से बाहर रहते हुए देश और दुनिया के कोने कोने पर राज्य निर्माण आंदोलन के लिए किसी न किसी रूप में अपना योगदान दिया था? क्या यह मानक व्यवहारिक हैं की आन्दोलनकारी केवल उन्ही को माना गया है जो लोग सरकारी सम्पति को क्षति पहुचने में दोषी पाए गए या उपद्रव करने के कारण जेल गए? पत्रकारों और खासकर युवा पत्रकारों ने अपनी लेखनी से आन्दोलन को धार दी थी लेकिन सरकारी मान्यता के लालच और पुलिस प्रशासन और एलआईयू की गिद्ध दृष्टि से बचने के लिए वह खुले मंचो पर इसलिए नहीं आये क्यूंकि ऐसे करने पर उनकी गोपनीय आख्या इस प्रकार बनायीं जाती की उन्हें मान्यता प्राप्त पत्रकार होने का सम्मान कभी न मिल पाता। दरअसल यह छात्रों का ही आंदोलन था। लेकिन अपने कैरियर को पुलिस प्रशासन और एलआईयू की गिद्ध दृष्टि से बचाने के लिए कतिपय छात्रों को छोड़कर अधिकतर सरकारी एजेंसियों की नजरों में आये ही नही। असली आंदोलनकारी हासिये पर रह गए और अनेक ऐसे लोगो को आंदोलनकारी घोषित कर दिया गया जिनका आंदोलन से कोई विशेष सम्बन्ध ही न था। जो भी हो " राज्य आन्दोलनकारी" शब्द की पुनर्समीक्षा होनी ही चाहिए।
क्या हुआ था 2 अक्तूबर, 1994 को
1. एक अक्टूबर 1994 की रात से दो अक्टूबर की सुबह तक आंदोलनकारियों पर पुलिस का लाठीचार्ज और गोलियां बरसीं।
2. पुलिस ने करीब चार सौ उत्तराखंडी गिरफ्तार कर पुलिस लाइन भेज दिए।3. गांधी जयंती पर सुबह पुलिस की फायरिंग में सात आंदोलनकारियों की मौत हुई।
4. पुलिस ने लाठीचार्ज और फायरिंग के दौरान खेतों में भाग रही महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़ किया। सीबीआई ने जांच में इस बात की पुष्टि हुई। ऐसे दो मामले कोर्ट में चल रहे हैं।
रामपुर तिराहाकांड को हुए 24 साल हो गये, लेकिन सीबीआई जैसी एजेंसी 24 साल बाद भी जांच को अंजाम तक नहीं पहुंचा पायी। यह आज चिंता का विषय है। तत्कालीन मुलायम सरकार में रामपुर तिराहाकांड की घटना को झुठलाने का प्रयास किया गया, वहीं सबूतों को मिटाने और गवाहों को रास्ते से हटाने का काम किया गया।
महात्मा गाँधी की जयंती के दिन यूपी पुलिस ढाया था कहर
2 अक्तूबर 1994 को मुज्जफर नगर में दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों पर यूपी पुलिस ने कहर ढाया था. मानवता को शर्मसार कर देने वाले इस कांड में 28 लोगों की मौत, 7 महिलाओं का गैंग रेप व 17 महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के मामले सामने आए थे. मुजफ्फर नगर के तत्कालीन जिला अधिकारी अनंत कुमार के आदेश पर पुलिस ने यह कार्रवाई की थी. अधिवक्ता रमन साह के अनुसार सीबीआई ने 22 अप्रैल 1996 को अनंत कुमार के खिलाफ अदालत में चार्जशीट दाखिल की थी.इसमें आईपीसी की 307,324,326/34 के तहत दोषी करार दिया था.लेकिन निचली अदालत ने इसमें धारा 302 भी जोड़ दी थी. अनंत कुमार ने इस कार्रवाई को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. हाईकोर्ट ने सीबीआई की कार्रवाई को निरस्त कर याचिका को निस्तारित कर दिया.प्रदेश सरकार व राज्य आंदोलनकारियों ने अदालत के इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर की थी. इस पर अगस्त 2003 में अदालत ने मामले को निरस्त करने के आदेश वापस ले लिए थे. हालांकि मामले की सुनवाई दूसरी बैंच को स्थानांतरित कर दी थी.मामले में सुनवाई के बाद अदालत ने क्षेत्राधिकार के अधीन नहीं होने का आधार लेते हुए 28 मई 2004 को अनंत कुमार इस याचिका को खारिज कर दिया था. नियमानुसार तब से निचली अदालत में इस पर विचार किया जाना चाहिए था, लेकिन मामला ठंडे बस्ते में पड़ा रहा.
गायब हो गया रिकार्ड
याची रमन कुमार साह ने सीबीआई देहारादून की अदालत में 22 अप्रैल 1996 की नकल लेने के लिए आदेवन किया. दफ्तर के प्रशासनिक अधिकारी ने उन्हें इस संबंध में कोई रिकॉर्ड नहीं होने की लिखित जानकारी दी है. इस पर एकलपीठ ने देहरादून के जिला जज से ब्यौरा मांगा.वहीं प्रदेश सरकार,सीबीआई व संबंधित प्रशासनिक अधिकारी को जवाब के लिए नोटिस जारी किया है. मामले की सुनवाई दो सप्ताह बाद होगी.
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